आंखें ख़ुदा ने दी हैं तो देखेंगे हुस्न-ए-यार कब तक नक़ाब रुख़ से उठाई न जाएगी -जलील मानिकपुरी।
नक़ाब उन ने रुख़ से उठाई तो लेकिन हिजाबात कुछ दरमियाँ और भी हैं -फ़ज़्ल अहमद करीम फ़ज़ली।
हिजाब उस के मिरे बीच अगर नहीं कोई तो क्यूँ ये फ़ासला-ए-दरमियाँ नहीं जाता -फ़र्रुख़ जाफ़री दीदार से पहले ही क्या हाल हुआ दिल का क्या होगा जो उल्टेंगे वो रुख़ से नक़ाब आख़िर -वासिफ़ देहलवी।
अदा आई जफ़ा आई ग़ुरूर आया हिजाब आया, हज़ारों आफ़तें ले कर हसीनों पर शबाब आया…!! नूह नारवी
हिजाब हर उस बुरी नज़र से हमारी हिफ़ाज़त करता है, के जो बेवजह ही चली आती है उठकर हमारी तरफ…!!
एक गजब का इत्तेफाक देखा, आइने पर भी नाकाब देखा, सोचा अरसा हुआ खुद से मिले, लेकिन वहां पर हिजाब देखा…!!
यूँ ही देखते रहे शब भर मुझे तो यकीनन किताब हो जाऊगा मैं, कहीं चुरा न ले चहरे से नूर चाँदनी तेरे हुस्न का हिजाब हो जाऊगा मैं।
थोड़ा और अच्छे से ढक मुझे, तू हिजाब है, मेरी झूठी हँसी नही…!!
नंगों ने हुकुम किया अब हिजाब पहन कर रहो, आंखों से नंगा करेंगे सब नक़ाब पहन कर रहो…
हिजाब के मेरे पहनने से उनका दम घुट गया, मुआशरे के अमन में ख़लल डालने अब हिजाब का मुद्दा मिल गया।
हिज़ाब गिरा कर हमकों क़त्ल किया, और लोग हमारी मौत का हतियार ढूँढते रहे।
देख आज फिर तुझे देखने के लिए तेरी गलियो में कितने पागल आए है वक्त का फरेब तो देखो तुम्हारे हिजाब के लिए कितने बादल छाए है।
अबस हो या आदिल हर एक के सवालों का जवाब रखती हूँ चेहरे पर नहीं बाँधती पर निगाहों में अदब का हिजाब रखती हूँ।
फूलों में गुलाब अच्छा लगता है और हसीन चेहरे पर हिजाब अच्छा लगता है…!!
कभी याद उन की आई है कभी वो ख़ुद भी आते हैं, मोहब्बत में हिजाब-ए-दरमियाँ बाक़ी नहीं रहता…!! मोहम्मद उस्मान आरिफ़
शराफत के उनके दावे सब सच्चे लगते हैं, कि हूस्नवाले हिजाब में ही अच्छे लगते हैं।
कैसे ना पहनूँ हिजाब ये तो आबरू का पहरेदार है, ये लिबास ही तो पहचान मेरी इस पर जां निसार है…!! कामरान ज़फ़र
तुम जब हिजाब किया करो निगाह पाबंद किया करो अपने हिजाब की आड़ में क़ौम ना बदनाम किया करो हिफ़ाज़त-ए-ख़ुद-इख़्तियारी संभल कर किया करो।
यूँ ही देखते रहे शब भर मुझे तो यकीनन किताब हो जाऊगा मैं कहीं चुरा न ले चहरे से नूर चाँदनी तेरे हुस्न का हिजाब हो जाऊगा मैं।
नजरें मिलाते नहीं मुस्कुराए जाते हैं बताओ यूं भी कहीं दिल मिलाएं जाते हैं हिजा़ब हो मगर ऐसा भी क्या हिजा़ब आखिर झलक दिखलाते नहीं मुँह छिपाये चले जाते हैं।
हिजाब और हिसाब में सिर्फ इतना फर्क है हिजाब दूसरों को देखकर पहना जाता है और हिसाब दूसरों को देखकर लगाया जाता है।
उनके चेहरे की तारीफ़ करूं भी तो कैसे उन्होंने अपने हुस्न का महताब हिजाब में छुपा रखा है।
हिजाब से रोकते हो क्या भगवान ने ऐसा कोई पाठ पढ़ाया है कभी नेताओं की बात मानने लग गए हो नेताओं ने आपस में लड़ने के सिवा कुछ सिखाया है कभी।
शर्मो-हया का जिस्म पे आना हिजाब है ज़हरा का ख़ानदानी ख़ज़ाना हिजाब है या मान लो हिजाब या मानो हो बेहया जब बेहयाई जड़ से मिटाना हिजाब है।
हिजा़ब, बुरका, घूंघट सब बहाना है, मकसद तो वही लड़कियों को चूल्हे-चक्की में ही खपाना है।
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